इस लेख के सभी पाठकों के लिए मैं ये उल्लेखित करना चाहता हूँ की यह लेख २१ अप्रैल २०१३ में लिखा गया था जब भारत के दोनों बड़े राजनैतिक संगठनों ने (भाजपा एवं इंडियन नेशनल कांग्रेस) अपने प्रधान मंत्री उम्मीदवार की घोषणा नहीं की थी | भाजपा ने बाद में श्री नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री उम्मीदवार के रूप में घोषित किया, जो आगे चलके २०१४ लोक सभा चुनाव भारी जनादेश से जीते और भारत के १५वें प्रधान मंत्री भी बने|
साल २०१३ है , और मेरे आस पास कई लोग नमो मंत्र का जाप कर रहे हैं| राहुल बाबा की भी बात होती है, अच्छी या बुरी, मगर बात ज़रूर होती है – यदि कलावती को और कठिनाइयों का सामना न करना होता तो वह भी करती | मगर मज़े की बात तो यह है की भारत अभी तक यह नहीं जानता कि उसे वास्तविकता में नमो मंत्र का उच्चारण करना चाहिए या नहीं, राहुल बाबा कि जय या राहुल बाबा का भय उसे होना चाहिए या नहीं | वहीँ दूसरी ओर विश्व की सबसे बड़ी ताकत कहे जाने वाले अम्रीका के संयुक्त प्रदेशों में विरोधी दल अपने राष्ट्रपति उम्मीदवार का नाम एक साल पहले ही घोषित करके डंके बजाते हुए एलान-ए-जंग कर देता है | पर हमारा भारत इन सब मामलों में थोड़ा खुले विचारों का है – हाँ, पश्चिमी विचारों से भी खुला हुआ | यहाँ देश की सबसे बड़ी दो पार्टियाँ जनता की नफ्ज़ भापने कोशिश करती हैं, बड़े मुद्दों को उठाने की कोशिश करती हैं, पर इन मुद्दों से प्रधान मंत्री बनकर कौन झुझेगा ? – इस सवाल पर वो या तो चुप्पी साध लेती हैं, या अनेका-एक संविधानिक कार्यक्रमों का हवाला देकर ये सोच लेती हैं की जनता खुश होगी – शाबाशी देगी | यहाँ ‘right to information act’ है पर वो information किस व्यक्ति विशेष के बारे में होनी ज़रूरी है, इस right से जनता अभी तक वंचित है| आलम तो ये है की जो ५० प्रतिशत मतदाता मत दाल रहे होते हैं, उन्हें उस दिन तक नहीं पता होता की भारत का अगला प्रधान मंत्री कौन हो सकता है | उन्हें यह सूसुचित राय बनाने का मौका ही नहीं दिया जाता | सत्ता के गलियारों से लेकर जेल के कारावासों तक – सब जगह ‘मैं प्रधान मंत्री बनाना चाहता हूँ’ – ये आकांक्षा सुदृढ़ रहती है | गटबंधनों के तोड़-जोड़ से लेकर आकड़ों की गेहमा गेह्मी होती है हर चुनाव के बाद , और भारत का मतदाता मूक खड़ा देखता है की कैसे सौ ऐसे नाम सामने आते हैं और देखते ही देखते वो सब उम्मीदवार बन जाते हैं | वो सोचता है की मत तो मैंने इनमे से किसी के लिए भी नहीं दिया था | मगर अंत में एक सच्चे भारतीय की तरह वो नए उम्मीदवारों को भी अपनाता है और अपनी रोटी कमाने मिएन फिर लग जाता है – यह सोचकर कि इन्होने काम किया तो ठीक , नहीं तो पांच साल बाद सर्कस फिर शहर तो आएगा ही, फिर देख लेंगे |
हाँ भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है , और इस बात को सुनकर कई भारतीय आज भी गौरान्वित महसूस करते हैं , मगर ये आंकड़ा दिन-पर-दिन कम होता जा रहा है | सत्ता के व्यापारियों ने जनता को मूक दर्शक समझ लिया है और ऐसे में उनके कानों में एक सवाल चिल्ला कर करना आवश्यक है – ‘आप दौड़ में हैं ? या बस चौड़ में हैं ? ‘