मैं, कल और आज

इस फाल्गुन मास में,
उन अदृश्य उँगलियों की गुद-गुदाहट है,
जो यादों को भी टटोलती है, लबों को भी। 

मैं आज में चलता हूँ,

और कल में खो जाता हूँ ,
आज में सोकर मैं कल में जग जाता हूँ। 

और मुझे दिखता हूँ मैं,

दुनिया से अपिरिचित हूँ थोड़ा-सा मैं ,
स्वयं में ही व्यस्त हूँ थोड़ा-सा मैं।  

पलटकर भी मैं स्वयं को ही खड़ा पाता हूँ,

मैं जो कि  अब उसी अनजान दुनिया का हिस्सा हूँ,
मैं जो कि  थोडा सा खोया हुआ किस्सा हूँ। 

फिर मैं खुद का हाथ थामकर,

दिखलाता हूँ खुद को ये दुनिया खुद की नज़रों से,
थोड़ी बातें फिर से सीखता हूँ, जानता हूँ। 

तभी किसी आवाज़ से आखें खुलती हैं,

और मैं सच्चाइयों से घिर जाता हूँ,
बीते हुए कल के कल को मैं आज पाता हूँ। 

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